तू कुछ भी तो नहीं था, फिर भी सब कुछ छीन ले गया,
एक साया बन के आया, और रौशनी तक पी गया।
ना कोई नाम था तेरा, ना कोई निशान बचा,
फिर भी हर याद में तू, जैसे कोई ज़ख्म सिला।
तू कुछ भी तो नहीं था, फिर भी मेरे आँसू बन गया,
हर भावना को धोता रहा, और अंत में बह गया।
दिल ने जो समझा था अपना, वो बस एक भरम निकला,
जिसे पकड़ना चाहा था, वो रेत सा सरक निकला।
अब सोचती हूँ किसके लिए इतना टूट जाना था?
जिसका वजूद ही नहीं था, उसे दिल में क्यों बसाना था?
तू कुछ भी नहीं था, एक गुज़रता हुआ दर्द था,
जो एहसास बनकर आया और सन्नाटे में गुमशुदा कर गया।
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